Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३२२
४२. ।पटंे तोणविदाइगी॥
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दोहरा: नितप्रति गुर तारी करति, भए चलनि कहु तार।
इतने महि आवति भयो, पठो जु१ गुरू अुदार ॥१॥
चौपई: पहुचो सिज़ख आनि तिह समैण।
जुग मातनि बंदति सिर नमै।
बिचरति आप देखि चलि आए२।
नर पंजाबी लखि हरिखाए ॥२॥
सिख पद बंदति जुग कर बंदि।
गुर को सभि बिधि कहो अनद३।
हाथ बिखै ते दीनसि पाती।
देखि तीन हूं सीतल छाती४ ॥३॥
ततछिन खोलि पढावनि कीनि।
लिखी कुशल सभि गुरू प्रबीन।
५संगति सहत मसंदन सारे।
हम दिशि ते दिहु खुशी अुचारे ॥४॥
सभिहिनि कहु बहु कहहु दिलासा।
निज दिशि ते पूरहु तिन आसा।
सिख संगति को अुर हरिखाइ।
तार होइ लिहु नर समुदाइ ॥५॥
चलि पंजाब देश को आवहु।
गमनहु सुख सोण नहि अुतलावहु।
मग महि पुरि तिन महि बहु संगत।
सिमरहि सतिगुर करि करि पंगति ॥६॥
तिन सभिहिनि कहु दरशन देते।
पुरहु मनोरथ सिख कहि जेते६।
सने सने मगअुलघन करीअहि।
१भाव जो सिज़ख नावेण गुराण घज़लिआ सी।
२खेडदे खेडदे आप (दशमेश जी) देखके (अुस पुरश) ळ आ गए।
३भाव श्री गुरू तेग बहादर जी दी सभ तर्हां दी आनद कुशल कही।
४देखके तिंनां भाव दोवेण माता जी ते साहिबग़ादे जी दी छाती सीतल होई भाव सुख प्रापत होइआ।
५चिज़ठी दा मग़मून तुरिआ।
६जितने मनरोथ सिज़ख कहिं।