Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ४४

५. ।कौड़े ते मर्हाजके राहक॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>६
दोहरा: जंगल देश प्रवेश भे,
श्री सतिगुर हरिराइ।
राहक कौड़े जहि बसहि,
मिलि भ्राता समुदाइ ॥१॥
चौपई: तहां जाइ करि कीनसि डेरे।
लशकर संग तुरंग बडेरे।
दोइ हग़ार दोइ सै रहैण।
बली शसत्र धारी भट अहैण ॥२॥
गुर आगवन देश नर ताहू।
सेवा हेत आइगे पाहू।
पूरब श्री हरिगोबिंद आए।
ललाबेग कंबर जबि घाए ॥३॥
तबि मेला इक लगो बडेरा।
श्री गुरु१ गमने हुते अखेरा।
सुनति कुलाहल तित दिशि आए।
हित दरशन के नर अुमडाए ॥४॥
हाथ जोरि बंदन बहु करैण।
शसत्र सहत पिखि आनद धरैण।
तबि इह कौड़ेराहक ब्रिंद।
करहि मालकी वधहि बिलद ॥५॥
कुल के भ्रात मिलहि समुदाइ।
सभि परि अपनो हुकम चलाइ।
मेले बिखै ओज दिखरावति।
निज मरग़ी अनुसारि चलावति ॥६॥
से भी लखि करि गुर ढिग आए।
हाथ जोरि सभि सीस निवाए।
हित दरशन के खरे अगारी।
हुते ब्रिंद अरु आयुधधारी ॥७॥
तिन की दशा बिलोक गुसाईण।


१श्री गुरू हरिगोविंद जी।

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