Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ४४
अरु सभि तीरथ मज़जन बार१।
किम लघु कहहु२ जि सभि ने माने।
महिमा महां पुरान बखाने ॥२०॥
कर बिचार मुझ दिहु समुझाही।
सतिसंगत की किमि बडिआई।
तबि श्री रामदास हितकारी३।
शबद सुनायो कीनि अुचारी ॥२१ ॥
स्री मुखवाक:
मलार महला ४ ॥
गंगा जमुना गोदावरी सरसुती ते करहि अुदमु धूरि साधू की ताई ॥
किलविख मैलु भरे परे हमरै विचि हमरी मैलु साधू की धूरि गवाई ॥१॥
तीरथि अठसठि मजनु नाई ॥
सतसंगति की धूरि परी अुडि नेत्री सभ दुरमति मैलु गवाई ॥१॥ रहाअु ॥
जाहरनवी तपै भागीरथि आणी केदारु थापिओ महसाई ॥
काणसी क्रिसनु चरावत गाअू मिलि हरि जन सोभा पाई ॥२॥
जितने तीरथ देवी थापे सभि तितने लोचहि धूरि साधू की ताई ॥हरि का संतु मिलै गुर साधू लै तिस की धूरि मुखि लाई ॥३॥
जितनी स्रिसटि तुमरी मेरे सुआमी सभ तितनी लोचै धूरि साधू की ताई ॥
नानक लिलाटि होवै जिसु लिखिआ तिसु साधू धूरि दे हरि पारि लघाई ॥४॥२॥
दोहरा: श्री सतिगुर मुख ते सुनो, शबद सु अरथ समेत।
गद गद भयो प्रसंन तबि, अुर भा प्रेम निकेत* ॥२२॥
१तीरथां दे जल दा इशनान।
२भाव इन्हां ळ नीवाण किअुण कहिणदे हो।
३प्रेम करके।
*इक लिखती नुसखे विच इस दोहे दी थावैण ऐतना पाठ होर है:-
चौपई: कहो गुरू जी तपा सुनीजै। गंगा आदि जु तीरथ भनीजै।
ते सभि साधू धूर को चांही। लोकनि के अघि तिन मैण पांही ॥२२॥
पापु मैलि करु होइ मलीन। साधू चरन धारन जब कीन।
तिन की धूरि ते मैलि सभु जाइ। तब तीरथ शांती को पाइ ॥२३॥
अठसठ तीरथु संगत मांही। कर सतिसंग सरब फल पाही।
भगीरथ तप कर गंगा आनी। हरि चरनो का निरमल पानी ॥२४॥
तिह मज़जे पापन हुइ नाश। सो हर चरन सतिसंग निवास।
कासी मथुरा आदि असथानु। हरि अवतारु ते अुतम जान ॥२५॥
सो हरि संतन रिदैमजारु। धारु प्रेम करि करै अुचारि।
यां ते सतिसंगति वडिआई। बेदागम रिखिअन मुखि गाई ॥२६॥
बिन सतिसंग तरिओ नहिण कोई। आगै पाछै अबि जो होई।
सो सतिसंग हम रीत चलाई। सभि सिज़खन को नाम जपाई ॥२७॥
इसी होत सतिसंग महातमु। हमने गायो जानु करि आतम।