Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ४४४. ।स्री अंम्रितसर सुज़खसांद दी खबर भेजी॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>५
दोहरा: १श्री गुरु हरि गोबिंद जी, जस बिसाल को पाइ।
लियो बैर पित को भले, गहो दुशट दुखदाइ ॥१॥
चौपई: बड अपराध करो जिन जैसे।
दई सग़ाइ दीरघा तैसे।
इम होए बिन जे मरि जातो।
करति कलकति जस अवदातो२- ॥२॥
-लियो न गयो बैर पिता केरा।
कोण सुत जनमो मंद बडेरा*।
गुरू अवज़गक थिरता पावै।
महां पातकी पाप कमावै- ॥३॥
सतिगुर सुत अरु संगति केरा।
कहि३ अपवाद अजान बडेरा।
श्री हरिगोविंद अबि सभि केरी।
राखि लई पत लाज घनेरी ॥४॥
अुपजनि तिन को धंन महाना।
करो काज छज़त्रीनि सुजाना४।
दावे दार५ रिदा अस जिन को।
आयुध धरनि धंन है तिन को ॥५॥
पूरब संत रूप गुर अहे।
तिन को छिमा करनि ही चहे।
इह बड बीर सु बाहु बिसाला।
बसहि बीर रस जहां सुखाला ॥६॥
मनहु सूरता रूप सुहावै।
दरशन ते अुतसाहुबधावै।
१दिज़ली दे लोक आपो विच वी कहिदे हन, देखो अंक ८।
२(गुरू जी दे) अुज़जल जज़स ळ कलकत करदा, अुस कलक दा रूप अज़गे दज़सदे हन:-
*गुरू जी दी शान विच इह वाक कवि जी नहीण वरत रहे, पर चौथे अंक दी दूजी सतर विच
दज़सदे हन, कहि अपवाद अजान बडेरा कि बड़े अजान पुरख इस तर्हां दे बेअदबी भरे वाकाण
विच सतगिुरू जी दी निदा करदे।
३कहिदे।
४सुजान छज़त्रीआण वाला।
५भाव दाईए वाले।