Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)३२५

नहिण अब डरहु जाहु तिस की दिश
निसि बिताइ करि गा तिसु थाइण१।
देखि दूर ते कूक पुकारति,
भै दायक जो दिखी न जाइ।
अूची भुजैण अुलारति दौरी
ततछिन निकटि गई तिस आइ ॥३१॥
कर मारन को जबहूं* अुछरी+
कौणस हती तिसु सीस मझारु।
गुर पनही२ छूवत++ सुधि होई
बैठि गई तन भई सणभारु।
नगन अंग जाने निज सकुची
अति लजा को चित महिण धारि।
सिमरन करी बारता सोअू,
-कमली, श्री गुर कीनि अुचारि- ॥३२॥
हे गुरसिख! मुहि बसत्र देहि कुछ
तन छादन मैण करौण सुधारि।
श्री गुर निकट जाइ बखशावौण
निज अपराध न आगा धारि३।
महां कशट मुहि प्रापति होयहु
अबि होई तन की संभारि।
दरशन करहिण दोश गन नासहिण,
ले चलि तूं अब पुरी मझारि ॥३३॥
सुनि कंबलि अपुनी तिनि दीनसि४,
ढांपो तन, अपने संग लाइ।
जुग५ बडि भाग खरे तबि आगे,१गिआ ओसे थावेण।
*पा:-जब ही।
+पा:-अुसही।
२जुज़ती अथवा खड़ाअुण।
++पा:-छूटत।
३आपणा अपराध, जो मैण गुरू जी दा हुकम नहीण मंनिआण सी।
४सज़चनसज़च ने दिज़ती आपणी कंबली।
५दोवेण (भाव सज़चन सज़च ते राणी)।

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