Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३०

संगति खट रस खाइ अहारा।
मधुर तुरश१ जे अनिक प्रकारा ॥१४॥
तबि ते लगर बरतति रहै।
आनि अचहि भोजन जो चहै।
नहिण किसहूं हटकारन होइ।
देश बिदेशी लहिण सभि कोइ ॥१५॥
जहिण कहिण सुजसु बिसाल प्रकाशा।
सिज़खन मन महिण होति हुलासा।
श्री अंगद को सुत सुनि करि कै।
जरहिण नहीण, जावति जर बरि कै२ ॥१६॥
-हमरे घर की इहु बडिआई।
हम कअु किअुण न होहि सुखदाई-।
श्री अंगद बैकुंठ पधारे।
करी तेर्हवीण जबहि पिछारे३ ॥१७॥
बुज़ढे अुर बिचार करि नीका।
दीनसि अमर गुरू कहु टीका।
दातू ने निज बल को धारे।
ले सभि ते बाणधी दसतारे ॥१८॥
बैठहि नित गादी पर सोइ।
पूजा करनि आइ नहिण कोइ।
अुपदेशति संगति को रहो।
तअू न गुर इस को किन कहो ॥१९॥
आइ नहीण को माथ निवावै।
मिलहि न, कुछअकोर अरपावै४।
यां ते रिस करि दुखहि घनेरा।
होहि ईरखा सहत बडेरा ॥२०॥
बनहि गुरू, पर बनो न जाई।
नहिण संगति किस दिश ते आई।


१मिज़ठा ते खज़टा।
२सड़ बल जाणदे हन।
३पिछे दज़स आए हन कि लौकिक रीत कोई नहीण होई।
४नां (कोई) मिलदा है नां भेटा अरपदा है।

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