Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३१

हुते मिज़त्र खज़त्री इस केरे।
निकट बैठि करि तरक घनेरे१ ॥२१॥
तुम सपूत बैठे रहि छूछे।
आइ नहीण, को बाति न पूछे।
को सिख आइ न दरस निहारहि।
भेट न अरपहि, नमो न धारहि ॥२२॥
जीवति ही भे म्रितक समाना।
पित गादी नहिण लई महांना।
किसी थान को खज़त्री आयो।
महां अरूज२ तांहि ने पायो ॥२३॥
देशनि के नरेश चलि आवहिण।
अरपि अुपाइन सीस झुकावहिण।
निति प्रति भीर सु गोइंदवाल।
आइ संगतां मिलहिण बिसाल ॥२४॥
पूजहिण पाइन सुजसु बखानहिण।
अति अुज़तमवसतू कहु आनहिण।
मारैण बचन बान अुर गाडे३।
सुनि दातू धीरज निज छाडे ॥२५॥
महिमा जज़दपि जानहि तिन की।
तदपि कुसंग हती ब्रिति मन की४।
दीपति मतसर अगनि अगारी५।
दुशट गिरा मेली घ्रित धारी६ ॥२६॥
बाकुल भयो सहो नहिण जाई।
अति रिस ते चित अस अुपजाई।
-अमर गुरू को जाइ संघारौण।
गुरता गादी बहुर संभारौण ॥२७॥


१भाव बोलीआण मारदे!
२प्रताप ।अरबी, अरूज॥।
३बचनां दे तीर मारदे हन जो दिल विच खुभ जाणदे हन।
४तां भी कुसंगत ने मन दी ब्रिती नाश कर दिज़ती।
५ईरखा रूपी अगन अज़गे ही मघदी सी।
६दुशटां दी बाणी ने घिअु दी धार (अुस अज़ग नाल) मेली भाव पाई, (अ) दुशट मेलीआण दे बाणी
रूप घिअु ळ धारन करके।

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