Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३३०
४३.।सिज़खां दे प्रसंग॥
४२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>४४
दोहरा: हुते बैद दोनहु बडे,
बनवाली, प्रसराम।
सिज़ख साध को रुज हरैण,
अुर निशकाम अनाम१ ॥१॥
चौपई: अवखध निज धन लाइ बनावैण।
गुरू अरथ रोगीन खुलावैण।
परो होइ२ तिस के घर जाइ।
अवखध बल ते देति अुठाइ ॥२॥
सतिगुरु शबद प्रेम ते गावैण।
अरथ बिचारहि बहुर कमावैण।
इक दिन श्री सतिगुर अगारी।
कर जोरति अरदास अुचारी ॥३॥
साचे पातशाहु हम जाना।
सतिगुरु शबद देति कज़लाना।
साध संग की अुपमां भारी।
कोण सतिगुरु ने इती अुचारी? ॥४॥
श्री मुख ते तिन सोण तबि कहैण।
अवखध सभि रोगनि को अहै।
तुमने करि सभि घर महि राखी।
रोगातुर आवहि हुइ काणखी३ ॥५॥
देख नाटका४ करहि बिचारी।
गरमी, सरदी, कफी अुदारी५।
नीके जबि परखहु तबि देति।
बहुरो पथ६ बताइ सुख हेतु ॥६॥
तबि तिस को रुज दूर बिदारो।१रोग रहित।
२(जो रोगी) पिआ होवे।
३(दवाई दी) इज़छा वाले होके।
४नाड़ी।
५बहुती।
६अनूपान।