Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३५
३५. ।संगत दी ढूंड, बाबा बुज़ढा जी गोइंदवाल॥
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दोहरा: स्री गुर अमर बिचारिकै,
-कलहि बुरी बहु- मानि।
निस आधी महिण निकसि करि,
वहिर कीनि प्रसथान ॥१॥
चौपई: चले इकाकी कछू न लीना।
बिन पदत्रान१ पयानो कीना।
बासर की* नगरीते अुरे।
सुंदर अवनी तहां निहरे ॥२॥
धेनुपाल को कोशठ हेरा२।
तिस दर पर लिखि कीनि बसेरा।
इस दर जो नर करहि अुपारे३।
तिस के गुर नहिण सिज़ख हमारे४ ॥३॥
लोक प्रलोक दौन ही खोवै।
नहीण सहाइक हम तबि होवैण।
चिं दर को लिखि कै सु प्रवेशे।
पदमासन करि श्री गुर बैसे ॥४॥
छपे तहां नहिण जानहिण कोअू।
निज सरूप महिण थिति ब्रिति होअू।
अचल समाधि अगाधि लगी है।
ब्रहम सरूप आनद पगी है५ ॥५॥
प्राति भई गुर नहिण तहिण६ पाए।
खोजति हैण सभि -कहां सिधाए?-।
इत अुत देखि रहे नहिण पायो।
सुनि करि दातू अुर हरखायो ॥६॥
१जुज़ती, जोड़ा।
*इह पिंड अंम्रितसर तोण पज़छोण कु रुख ळ पंज छे मील ते है।
२गुवाले दा कोठा देखिआ।
३खुहले।
४ना अुह साडे सिख हन नां असीण अुस दे गुरू हां।
५(विच) रंगी होई।
६भाव गोइंदवाल विच।