Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३३३
४३. ।तखत ते बिराजमान॥
४२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>४४
दोहरा: दिवस प्रतीखति आइगो, दसमी आदितवार।
गन मसंद करि शीघ्रता, संगति संग हग़ार ॥१॥
चौपई: चलहु पिखहि अुतसाहु बिसाला।
जित कित ते आए ततकाला।
अनिक भांति की लए अकोरा।
चहु दिशि ते चलि गुरु पुरि ओरा ॥२॥
बरहि१ सुधासर दरशन पावैण।
मज़जहि, किरतन सुनि हरखावैण।
संगति मिली आनि समदाई।
जै जै कार करहि बहु थाईण ॥३॥
चहुदिशि परे सुधासर डेरे।
दरशन हित चित चौणप बडेरे।
जाम जामनी ते गुर जागे।
सौचाचारकरनि तबि लागे ॥४॥
करि शनान को आसन मारे।
निज सरूप महि ब्रिति थिति धारे।
टिके सज़चिदानद मझारी।
लीनहु सुख होवति भुनसारी ॥५॥
अुदै भयो दिनकर२ जिस काले।
पहिरो जामा जिस गन पाले३।
छबि अुशनीक४ सीस पर धारी।
जिगा बधी अूपरि दुति कारी५ ॥६॥
कलगी मुकता गुज़छ अुजाला।
मुख मंडल पर कुंडल झाला६।
माल बिसाल सुढाल जि मुकता१।
१वड़ के।
२सूरज।
३जिस दे बहुत पज़ले हन।
४पग, दसतार ।संस: अुणी = पज़ग॥
५सुंदरता वाली।
६झूलदे हन।