Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)३३६
गुर की वसतु सकल अपनाई१।
बसत्र बिभूखन तन पहिराई।
गुरता गादी बैठि सजाई।
करति प्रतीखन को चलि आई२ ॥७॥
नहिण संगति तिसु निकट गई है।
करी अवज़गा कुपति भई है३।
देखि दूर ते इत अुत होइ४।
सादर नम्रि भयो नहिण कोइ ॥८॥
दुखहिण देखि करि सिज़ख महांने।
-का इन५ करो लोभ अुर ठाने-।
निज निज थान रहे सभि बैसे।
तिस ढिग गमनो कोइ न कैसे ॥९॥
एकल बैठि बहुत अकुलायो।
अर संगति के अुर नहिण भायो।
भयो अुदास वसतु सभि लीनी।
बेसर६ लादि सु तारी कीनी ॥१०॥
संधा समै चलो दिश ग्रामू।
कुछ सेवक संग जाइ सु धामू।
मग महिण निसा भाई तम छायो।
आनि मिले तसकर समुदायो ॥११॥
भाजे दास लूटि सभि लयो।
होइ छूछ घर पहुणचति भयो।
घर के बसत्र बिभूखन खोए।
हती लात, तिस महिण दुख होए७ ॥१२॥
घर महिण बैठि बिसूरो फेरि।
-मैण कुकरमि का कीनि बडेर।१आपणी बणा लीती।
२अुडीकदा है कि कोई आवे।
३(गुरू जी दी) अवज़गा करने करके (संगत) गुज़से हो गई है (दातू नाल)।
४लांभे हो जाणदे हन।
५दातू ने।
६खज़चर ।संस: वेसर॥।
७(लत) दुखं लग पई।