Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३३९
दे टीका गुरगादी थाप।
ब्रहमगान महिण निशचल नीति।
अंतरजामी जहिण कहिण चीत ॥२७॥सरब शकति जुति समरथ अहो।
अग़मति सदा छिपाए रहो।
सभि संगति पर करुना कीजहि।
शरन आप की परी लखीजहि ॥२८॥
सुनति बिनै कहु बुज़ढा बोलो?
किस कारन तुमरो मन डोलो।
मेरे अुचित कौन सो काम?
करौण सु कहो सकल अभिराम ॥२९॥
इक सिज़ख की सेवा फल महां।
संगति सेव पाईअहि कहां।
जिस पर सतिगुर होहिण क्रिपाल।
निज दासन की देण तबि घाल१ ॥३०॥
संगति कहो तबहि कर बंदि।
गुर बिन बाकुल अुर सिख बिं्रद।
कहां गए, नहिण जानी जाइ।
जथा अचानक रवि असताइ२ ॥३१॥
मसतक टेकहिण तांहि अगारी।
रहहिण बैठि अबि कौन अधारी३।
जिमि तारनि महिण चंद बिराजहि।
तिमि संगत महिण सतिगुर छाजहिण ॥३२॥
जिस को आप सथापहु गुर करि४।
तिस को संगति मानहिण सिर धरि।
इमि सुनि कै सभि ते निज कान।
बुज़ढे तबहि लगाो धान ॥३३॥
१दासां दी सेवा अुस ळ देणदे हन।
२छिप जाणदा है।
३किन्हां दे आसरे।
४भाव इह है कि संगत वाकुलताविच खिआल करदी है कि गुरू साहिब शाद अंतर धिआन हो
गए हन ते गज़दी ते गुरू सथापन कर गए हन, जे इह गज़ल है तां बी बुज़ढे जी ळ पता है,
किअुणकि बुज़ढा जी ळ गुरू गिआता सदा प्रापत होण दा वर मिल चुज़का है।