Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४०

इक घटिका लग द्रिग नहिण खोले।
बैठे संगति जुकति अडोले।
तीन लोक महिण खोजन कीने।
सतिगुर बिदत नहीण कित चीने१ ॥३४॥
छपे कहूं पुन देखति भयो।
थान अनेक खोजिबो कियो।
जानो मन महिण तबि गुर फुरे२।
प्रविशे कोशठ अंतर दुरे ॥३५॥
दर चिं राखो, वहिर न काहूं३।
करि समाधि बैठे तिस मांहूं।
सगरो खोज धान महिण देखि।
खोले लोचन बीच अशे४ ॥३६॥
अुर बिचार इमि कीनि बिसाला।
-करोण बतावन जे इस काला।
सतिगुर अमुक५ सथान सुहाए।
अंतर छपे समाधि लगाए ॥३७॥
तबि अग़मति ग़ाहिर हुइ जाइ।
नीकी रीति नहीण इसु भाइ।
अपर फरेब* करीजै कोई+।
जिस ते सतिगुर दरशन होई++ ॥३८॥सभि संगति संगि बाक सुनावा।
श्री गुर सभिनि बिखाद६ मिटावा।
नही चिंत कीजहि मम पारे!


१प्रगट नहीण देखे।
२फुरिआ (फुरना कि) गुरू जी कोठे अंदर प्रवेश होए लुके हन। (अ) गुरू जी दा फुरना फुरिआ
कि-भाव झलका वज़जा कि-।
३(होर) बाहर किते नहीण हन।
४सारिआण (सिखां) विच।
५फलांे।
*फरेब विच दूसरे तोण आपणे लाभ दा प्रयोजन हुंदा है, एथे आपा छिपावन दी निम्रता प्रयोजन
है, तांते इस दा अरथ छल नहीण, परदा है।
+पा:-कोअु।
++पा:-होअु।
६सारिआण दा दुज़ख।

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