Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३३८
४८. ।गुरू जी त्रिबेंी पुज़जे॥
४७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>४९
दोहरा: महां सिंघासन पर गुरू,
हाथ जोरि बैठाइ।
अनिक प्रकारनि असन को,
तबि मलूक करिवाइ ॥१॥
चौपई: थार परोसो धरो अगारी।
खरे होइ बहु बिनै अुचारी।
नित शरधा सोण भोग लगावौण।
नहि सरूप प्रभु को दरसावौण ॥२॥
आज प्रतज़ख द्रिगनि के आगा।
ठाकुर भोग लगावनि लागा।
भयो सफल मैण, ग्रिह चलि आए।
भोजन अचहि होहित्रिपताए ॥३॥
देखि भाअु श्री गुर तिस केरा।
भोजन अचो क्रिपा करि हेरा।
भयो क्रितारथ कशट निवारे।
पुन सेवा कीनसि हित धारे ॥४॥
निसा बास करिकै गोसाईण।
जागे पुन प्रभाति है आई।
आदि शनान सौच करि सारे।
श्री गुरु भए चढनि कहु तारे ॥५॥
जेतिक संगति तहि ते आई।
अरपि अुपाइन को समदाई।
जो जो गुर हित राखनि करी।
सो सभि आनि अगारी धरी ॥६॥
संगति पर बहु खुशी करी है।
दासनि की अपदा सु हरी है।
मारग गमन कीनि गुरु पूरे।
अनिक प्रकारनि वाहन रूरे ॥७॥
मात नानकी संग चलती।
चढि संदन सुंदर सुखवंती।