Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४१
सभिनि सहाइक कारज सारे१ ॥३९॥
सतिगुर सिमरहु प्रेम बिसाले।
मिलहिण गुरू सभि लेहिण संभाले।
चलहु सकल ही गोइंदवालौण२।
मैण बी अबि तुमरे संगि चालौण* ॥४०॥
गमन करो सभि केरि अगारी।
हरखति संगति चली पिछारी।
तूरन ही सभि पुरि महिण आए।
गुर बिन नगर न सदन सुहाए ॥४१॥
जथा सुरग मघवा३ बिन होइ।
नर नारी चिंता चित सोइ।पूरब बुज़ढा गयो चुबारे।
बिनै बचन हुइ खरे अुचारे ॥४२॥
श्री सतिगुरु! संगति दिश हेरहु।
अपर बारता रिदै निबेरहु।
चिंतातुर अुदबेग४ समेत।
प्रभु जी! सूने परे निकेत ॥४३॥
तुम बिन किसहि न लागति आछे।
खान पान की रुचि नहिण बाछे।
संकट सभि को हरहु क्रिपाला!
देहु दरस अपनो इस काला ॥४४॥
इमि कहि वहिर सरब मैण बैसे।
बूझति इह प्रसंग भा कैसे?
निकसे सतिगुर कौन समेण हैण?
खोजैण खोज बताअु हमे हैण ॥४५॥
कहो सभिनि गुर अंगद ताता।
आइ प्रहारी गुर के लाता।
अरध निसा महिण निकसे पुरि ते।
१सारिआण दे सहाइक (गुरू जी) कारज सारनगे।
२गोइंदवाल ळ।
*पा:-मै अबि हो संगै तहिण चालौण।
३इंद्र।
४चित दी विआकुलता ।संस: अुदेग॥।