Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३३९

४९. ।जाती मलक प्रति अुपदेश॥
४८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>५०
दोहरा: इस प्रकार श्री सतिगुरू,
समा बितावन कीनि।
नम्री स्री हरिराइ पिखि,
करहि सनेह नवीन ॥१॥
चौपई: अपनिसमां तन तजन पछाना।
बीतति बासर हुइ नियराना१।
गुरता दई चहैण निज पोते।
लखि करि धीर आदि गुन पोते२ ॥२॥
दिन प्रति दान देति दिज दीन।
दरब जवाहिर कीमति पीन३।
बरन बरन के बसत्र नवीन।
बली तुरंग पाइ करि ग़ीन ॥३॥
गुर कर ते पूरब खर धारा।
करवारन की बही अुदारा४।
जिसहि पाइ काइर बहि गए५।
तर करि सूर६ सुरग को गए* ॥४॥
तथा दान धारा गुर कर की।
निसदिन चली जाति इकसर की७।
दीननि को दारिद८ बहि गयो*।
दसहूं दिशि जसु ते भरि गयो ॥५॥
अधिक दारिदी जे चलि आवैण।
पहिर बिभूखन तुरंग नचावैण।
जबि अपने घरि पहुचहि जाइ।


१(आयू दे) दिन बीत रहे ते नेड़े हुंदा जाणदा (तन तजन दा समां) पछांिआण।
२गुणां दे जहाज।
३भारी मुज़ल दे।
४गुरू जी दे हज़थोण (जिवेण) पहिले तिखीआण तलवाराण दी धारा बहुती ही वही सी।
५रुड़्ह गए।
६सूरमे (अुस धारा ळ) तरके।
*कविता दा कमाल है।
७इक सार, भाव लगातार।
८कंगालता।

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