Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३४२

४२. ।सूबे ते खज़त्रीआण दा गुरू जी ळ वंगारना॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>४३
दोहरा: सनमुख भयो नबाब जबि, बहु सैना मरिवाइ।
द्रिशटि परसपर प्रेरि तबि, पिखे रूप द्रिग लाइ ॥१॥
चौपई: कर धनु, कट इखधी१ शमशेर२।
सिपर सहत श्री गुर सम शेर।
बडे प्रतापवंति पिखि करि कै।
हतनि हेत गन जतन सिमरि कै ॥२॥
तुरंग नचावति जुति गजगाहनि३।
सिज़खनि को चाहति अविगाहनि४।
चांप हाथ महि तीर निकारति।
ऐणचि कान लगि बल करि मारति ॥३॥कंचनि केर बिभूखन अंग।
जबर जवाहरि जरती संग।
बली चपल बड मोल तुरंग।
ठहिरति नहि थरकति बिच जंग५ ॥४॥
तिम दोनहु खज़त्री चलि आए।
गुरु को हेरि रिदे तपताए।
तिनहु बिलोकति सतिगुर बोले।
अबहि काल, पलटा पित को ले६ ॥५॥
किम काइर बनि समुख न आवहु?
रचि अुपाधि बडि तुरक हनावहु।
बैहि कचहिरी बाति बनै हैण।
-पित पलटा गुरु ते हम लैहैण- ॥६॥
तुम कहिबो कहु महिद धिकारू।
नहि ढिग होवति जंग मझारू७।


१हज़थ विच धनुख, लक विच भज़था ।सं: इुधी॥
२तलवार।
३देखो इसे रास दा अंसू ३९ अंक ३५ दी पहिली सतर दा प्रयाय।
४हल चल पा देणी। (अ) भाव, सिज़खां ळ लघ के सतिगुरू जी पास जावंा चाहुंदा है।
५टिकदा नहीण ते थरकदा रहिणदा है भाव दाअु घाअु तोण बचं लई इधर अुधर हुंदा रहिदा है।
६हुण समां है पिता दा बदला लै लै।
७(किअुणकि) जंग विच तां नेड़े नहीण ढुकदे हो।

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