Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) ४५
तूं बताअु कहु कैसे करना।
मिलहु कि नहीण शत्र गन हरना?
बोलो साध आप हो मालक।
तुमरा बंदा करौण नआलक१ ॥३७॥
हुइ रावरि आइसु अनुसारी।
करौण जंग भंगौण रिपु भारी।
तुम सहाइता लै खर खंडा।
करौण घमंड२ प्रचंड खड खंडा ॥३८॥
हसि बोले हम दीना हुकम।
बालू मज़ध निकासा रुकम३।
देश पंजाब जाहु मम बदला४।
*बिमुख हूए मेरे मन रदला५ ॥३९॥
पंथ तेज तेरे ही दीना६।
सभिनि बिखै तो को मुखि कीना।
अपनि आप ते भाखो बंदा।
इह बिदतै जग नाम बिलदा ॥४०॥
नहि ठहिरहि रिपु तोहि अगारी।
हुइ संघर घमसान अुदारी।
लरैण अरैण लाखहु ही मरैण।
बचैण सु जीव भाज जो परैण ॥४१॥
सुनि गुरवाक भयो मन गाढो।
हाथ जोरि सनमुख रहि ठाढो।
करन जंग को भा अनुसारी।
क्रिपा द्रिशटि सतिगुरू निहारी ॥४२॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे अुज़तर ऐने बंदे को प्रसंग बरनन
नाम पंचमोण अंसू ॥५॥
१आलस।
२युज़ध।
३रेत विचोण सोना कढिआ है।
४पंजाब देश विचमेरी थावेण जावो।
*इह तुकाण सौ साखी दी ५७वीण साखी दीआण हन। इसे करके सिथल जेहीआण हन, कवी जी दी
रचनां तुज़ल नहीण हन।
५हे मेरे बंदे! जो बेमुख होए हन अुन्हां ळ रज़द कर ।मन=मनुज, बंदा॥।
६तेजवाला पंथ तेरे हज़थ दिज़ता है।