Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि १) ३४५

अज़खर लिखै देखि करि कहो।
सभि आवहु, इक पता सु लहो१ ॥१३॥
गुरू हाथ की लिखति दिखीजहि।
मैण अब पठिहौण सरब सुनीजहि।
गए धाइ तिस देखो जाइ।
पठि अज़खर सो ब्रिज़ध सुनाइ ॥१४॥
आइ इहां दर पारहि२ जोअू।
हम नहिण गुरू, सिज़ख नहिण सोअू।
हलत पलत महिण नहीण सहाई।
जो आइसु को देहि मिटाई ॥१५॥
सुनि संगति सगरी बिसमानी।
किमिहूं कही जाइ नहिण बानी।
आन३ गुरू की अुलघ न सज़कईण।
खरे परसपर मुख को तज़कईण ॥१६॥
-जानी जाइ जुगति नहिण कोई।
जिस ते दरस गुरू कहु होई-।
चिंतमान है करि तबि सारे।
शरन ब्रिज़ध की बाक अुचारे ॥१७॥
इह कौतक सभि आप दिखाए।
तुम बिन किस ते है न अुपाए।
सभि संगति पर करुना करीए।
आप जतन करि गुरू दिखरीए ॥१८॥
सुनि बिचार बुज़ढे तबि कीनसि।
सिज़खन पर करुना रस भीनसि।
चितवो -गुरु ने बचन अुचारा।
होहि दोश जे खोलहिण दारा॥१९॥
अपर थान को पारन करौण४।
तहां नहीण इस दोश निहरौण।


१इक पता मिल गिआ है।
२खोलेगा।
३मिरयादा (अ) प्रतिज़गा।
४पाड़नां कराण।

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