Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४६

दरशन करि कै बिनती ठानहिण।
सभि अपराध छिमहि, हित जानहिण१- ॥२०॥
रिदै धान धरि बंदन कीनसि।
कोशट को पिछली दिश चीनसि।
तहां जाइ करि ईणट अुखेरी।
तीछन लोह संग तिस बेरी ॥२१॥
गरी करी२ तहिण प्रविशनि जेती।
संगति देखति अचरज सेती।
पशचम दिश महिण कोशठ दारा।
पूरब दिशा पार को पारा३ ॥२२॥
अंतर धीरज धारि प्रवेशा।
पिखे गुरू तबि मनहु महेशा।
आसन लाइ समाधि अगाधा।
ब्रहम रूप इक अचल अबाधा ॥२३॥
अंग अडोल टिके जग सामी।
कोटि बरख जिमि शिव निशकामी४।
पद अरबिंद बंदना धारी।
कर सपरश करि थिरो अगारी॥२४॥
छुवतन* हाथ समाधि विराम५।
खुले बिलोचन क्रिपा सु धाम६।
देखि ब्रिज़ध को बाक अुचारा।
किमि तैण टारो हुकम हमारा? ॥२५॥
श्री गुरु! हम नहिण आइसु टारी।
तजि दर, फोरो दार पिछारी७।


१गुरू जी प्रेम ळ ही जाणदे हन, भाव ओह गुज़से कदे नहीण हुंदे (अ) मेरे प्रेम ळ जाण लैं (कि
इस दी अवगा दा कारण प्रेम है बेअदबी नहीण)।
२मोरी कीती।
३पाड़ पाड़िआ।
४कामना तोण रहत शिव जी।
*पा:-छूवति।
५अुटक गई, ।संस: विराम = किसे क्रिया दा रुक जाणा॥ समाधी दे प्रवाह दा रुक जाणा समाधी
दा खुल्ह जाणा है।
६भाव गुरू जी दे नेत्र।
७पिछले पासिओण रसता पाड़िआ है।

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