Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३४३

४५. ।श्री गुरू जी दा प्रताप॥
४४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २अगला अंसू>>४६
दोहरा: ग़ोरावर सिंघ नाम धरि, सुनि हरखो परवार।
अुत अजीत सिंघ खेलते, भूखन शबद सु धारि ॥१॥
चौपई: सतिगुरू घर जुग साहिबग़ादे।
मात बिलोकति चित अहिलांदे।
बसन बिभूखन पाइ नवीने।
डीठ न लगहि दिठौना दीने१ ॥२॥
करहि दुलारन दाई दाए२।
पुरि नर नारि हेरि हरखाए।
संगति सहित मसंदनि ब्रिंद।
सुनहि जनम गुर नद अनद ॥३॥
अलकार रचना बिधि नाना।
सुधरावहि३ दे दरब महाना।
भांति भांति के बसन बनावहि।
गुरू रिझावनि कारन लावहि ॥४॥
कलीधर घर अुतसव घने।
दिन प्रति होति अनद को जने४।
दिवस बसोए५ को बड मेला।
चहुं दिशि ते नर नारि सकेला ॥५॥
शसत्र सजाइ अूच थल बैसे।
बीच सभा के रघुवर जैसे।
वसतु अजाइब पुंज अकोर।
अरपति आनि दुअू कर जोरि ॥६॥
जुग लोकनि की चहि कज़लाना।
दरशन दरसहि भाव महाना।
सुत बित आदि रिदे करि आस।


१(इस करके)काला दा लाइआ।
२दाई = पालं वाली। दुज़ध चुंघाअुण वाली। दाइआ = खिडावा।
*जबानी सरदार मान सिंघ जी।
३बणवाअुणदे हन।
४जंावं वाले।
५वसाखी।

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