Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ३४४मान सिंघ तबि चलति अुचारे।
इह मग पहुचै माछीवारे१ ॥८॥
तारे सेध निहारति चलो।
पुरि लगि खोजति गुर संग मिलो।
धरम सिंघ बोलो मति धीर।
खोजति गमनहु इत अुत तीर२ ॥९॥
न्रिभै बीर तीनहु तबि चाले।
मारग इत अुत फिरति संभाले।
खोजति श्री सतिगुर को जात।
इस बिधि बिती सकल ही राति ॥१०॥
जबै समा अरणोदै होयो।
चंद प्रकाश मंद को जोयो।
पूरब दिश मुख लाल दिखायो।
जनु तुरकनि को चहति खपायो ॥११॥
तिमर तोम पतरो हुइ गयो३।
कुछक प्रकाश अकाशहि भयो।
गमनति देखति पहुचे तहिवा।
सुपति जगतपति प्रभु थिर जहिवा ॥१२॥
ग़ेवर कितिक अुतारन करे।
घटी४ हरट की सिर तर धरे।
गुलशत्राण५ अंगुशट मझारा।
पहिरे राखो नहीण अुतारा ॥१३॥
मोल हग़ार इकादश ताहू।
राखहि बड धनु६ धरि करि मांहूं।
समेण पनच ऐणचनि के जोअू।
१इह राह पुज़जदा है माछीवाड़े।२नेड़े नेड़े।
३सारा हनेरा पतला पै गिआ।
४टिंड।
५अंगूठे अुते ते नाल दी अुणगल पर पहिरिआण जाण वाली चमड़े दी टोपी जिस नाल तीर
चलाअुणदिआण आणटीआण नहीण पैणदीआण ।संस:, अगुलित्र ते अंगुलत्रान=अुणगली दी रज़खा करन
वाला॥।
६धनुख।