Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४७
सभि सिज़खन मन बाकुल हेरा।
दुरे आप करि जगत अंधेरा ॥२६॥
इह बिधि कोण करि बनहि गुसाईण।
छपहु आप संगति दुख पाई।
सरब शकति जुति समरथ पूरन।
चहहु जि चिज़त महिण करि हो तूरन ॥२७॥
तीन लोक पर हुकम तुमारा।
बैठहु तुम, किसते डर धारा।
निकसहु वहिर दिखावहु दरशन।
करिहै संगति पाइन परसन ॥२८॥
श्री अंगद की सिमरहु सिज़खा।
नाम जपाइ करहु सिख रज़खा।
सुनति भए श्री अमर प्रसंन।
कहो ब्रिज़ध को तुम बहु धंन ॥२९॥
परअुपकार हेतु सभि करो।
सिज़खी को सथंभ१ है थिरो।
मतसर पावक जलत२ महाना।
ईणधन धीरज गान रु धाना३ ॥३०॥
पिशताशनी४ आस दुखदाई।
पुरहि न राज त्रिलोकी पाई५।
ब्रहमादिक जिन जीते सारे।
कलिजुग के नर कौन बिचारे ॥३१॥
मोह सैन को जोर महाना।
जहिण कहिण सदगुन की करिहाना६।
बहु कुचाल कलिकाल बिथारी।
पंडित मूढन सभि अुर धारी ॥३२॥
१थंम्ह, आसरा।
२(जगत विच) ईरखा रूपी अज़ग बल रही है।
३धीरज, गान धान अुस विच बालं बल रहे हन।
४आदमखोर। ।संस: पिशताशनि = राखशी, आदम खोर, गोशत खोर॥ आसा ळ आदमीआण दा मास
खां वाली दज़सदे हन।
५पूरन नहीण हुंदी त्रिलोकी दा राज पाइआण भी।
६स्रेशट ुंां दी नाश करता है।