Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३४५

५०. ।जाती मलक प्रलोक गमन। संगत आअुणी॥
४९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>५१
दोहरा: इस बिधि प्रापति गान के,
अंत समां ढिग चीनि।
गमनो श्री गुर के निकटि,
दयाराम संग लीनि ॥१॥
चौपई: श्री प्रभु! मैण अबि तजौण सरीर।
दयाराम सुत तुमरे तीर।
गहि भुज को राखहु निज पास।
अलप बैस इस की, सुखरास! ॥२॥
इक अलब रावर को अहै।
नहीण अपर को जाचन लहै१।
सतिगुर कहो होहि बडभागा।
रहै सदा गुर घर संग लागा ॥३॥
दसम गुरू होवैण जिस काला।
दे ते के धनी बिसाला।
मचहि घोर संघर भट लरैण।
तबि इह शसत्र जुध महि करै ॥४॥
तिन के संग सदा सुख पावै।
जस बिदतहिजग महि नर गावै।
जाती मलक सुनति हरखायो।
करि बंदन को सदन सिधायो ॥५॥
करि शनान पावन हुइ गयो।
कुश पर पौढि प्रान तजि दयो।
सुनि सतिगुर बहु मनुज पठाए।
दाहन को चंदन समुदाए ॥६॥
जव, तिल, घ्रित आदिक सभि लाइ।
रची चिता पिखि पावन थाइ।
दया राम सभि कीनि बिधान।
करो भसम तन पिता सु ठानि२ ॥७॥


१होर दी जाचना ना देखे।
२पिता दा तन दाह कीता, सोहणे थां। ।सु+ठान = थाअुण॥

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