Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३४९

दरसहिण सतिगुर रिदै अनदहिण।
धरहिण अुपाइन प्रेम बधावहिण।
जै जै कार अुचारि सुनावहिण ॥३९॥
सभि संगति बैठी हरखाए।
भेटनि के अंबार लगाए।
सभिनि सुनाइ गुरू तब कहो।
इहु अुपकार सु बुज़ढे लहो ॥४०॥
खेद बडो निज तन पर लीना।
नीको हित संगति को कीना।
इस को पार दयो दरसावै१।
सो नर जम को पिखन न पावै ॥४१॥
इहु संगति को बोहिथ भारा।
भअुजलते करिहै निसतारा।
सिज़खी अवधि, न इस ते परै२।
नाम लिए गन बिघन सु हरै ॥४२॥
ब्रिध ने कहो तुरंगनि खरी।
जिस ने रावरि की सुधि करी।
अुठहु, अरूढहु, चलहु क्रिपाला!
सदन आपने गोइंदवाला ॥४३॥
तबि श्री गुरु निकसे तिस३ बाहर।
खरे भए दिय दरशन ग़ाहर।
आइ तुरंगनि सीस निवावा।
फुरकावित४ हिरदा हरखावा ॥४४॥
तबि श्री अमर फेर करि हाथ।
चढे सिमर श्री नानक नाथ।
सुंदर गति५ बड़वा तबि चलै।
संगति चलति संग सभि मिलै ॥४५॥
भाई ब्रिज़ध रकाब तबि गही।

१इसदे दिज़ते पाड़ ळ (जो कोई) देखेगा।
२सिज़खी दी बाबा बुज़ढा हद है इसतोण परे होर सिज़खी नहीण।
३ओस (कोठे) तोण।
४(नासां) फुरकाअुणदी है।
५चाल।

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