Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३४६

४५. ।विजै लैके बिसाली पहुंचंा॥
४४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>४६दोहरा: अंध धुंध बहु धूम१ ते,
चढी धूल असमान।
धूम परी२ बहु बीर की,
मानी सभि ने आनि ॥१॥
नवनामकछंद: तड़भड़ तुपकन। तजि तजि अरि हनि।
खड़गनि हति हति। मरति सु जित कित ॥२॥
सतुद्रव तट पर। अटिक सुभट बर३।
रुपि रुपि लरि करि। मिटति न प्रण धरि४ ॥३॥
गुर सुत सर खर५। करखति६ धनु धरि७।
बल बड भरि भरि। तजति तुरत धरि८ ॥४॥
सरपन समसर। फुकरति अरि पर९।
बिधि बिधि गिर धर। रकत सु भरि भरि१० ॥५॥
भट परि महि महि११। पुन सर गहि गहि।
रिपु तन लहि लहि। थित रहु कहि कहि ॥६॥
रिस अुर करि करि।
धर धरि धर धरि१२।
अरि अरि अरि हरि१३। शूंकति सर खर ॥७॥
चंचला छंद: स्री गुबिंद सिंघ जी, अनद मैण बिलद होइ।
सिंघ पुंज संग, बाक बोलते प्रकोप जोइ।
मारीए तुफंग को, जु अज़ग्र आनि कीनि ढोइ।


१धूंएण नाल।
२मशहूरी होई।
३अटके (सारे) स्रेशट सूरमेण।
४भाव जिंना चिर प्राण रहिदे हन, हटदे नहीण।
५तिज़खेतीर।
६खिज़चदा है ।आकरखत॥।
७धनुख फड़के।
८तुरत करके चलाअुणदा है।
९वैरी अुते फुंकारके जा लगदे हन।
१०विंन्ह विंन्ह के धरती ते डिज़गदे हन लहू दे भरे होए।
११(इअुण) धरती अुते सूरमे पैणदे जाणदे हन।
१२धरती (अुते) धड़ (ही) धड़ धरी जाणदे हन।
१३अड़ने वाले वैरीआण ळ अड़के मारदे हन।

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