Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ३४८

मनहु अनारकली जुग सोहैण१।
कै मुख अलप सारका दोहैण२ ॥३६॥
गज ते ततछिन ही छित परो।
रिपुनि पराजै बाणछति मरो।
पदवी बीरन की शुभ पाए।
गुर कर ते मरि भिसत सिधाए ॥३७॥
चौणदां कुंचर के अुमरावं।
आग़म साथ गिरे रण थावं।
शसत्रशहीदनि कर के लागे।
गए भिसत के प्रानन तागे ॥३८॥
अपर सुभट सैणकर ही घाए।
गिरे बारि इक प्रान गवाए।
हाहाकार बीच लशकर के।
आग़म गिरो मरो लखि करि कै ॥३९॥
जे अुमराव बचे तिस काला।
लशकर मोरो लरति कराला।
सने सने हटि पाछै गए।
तूशनि जाइ अुतरते भए ॥४०॥
आपहु अपने दूत पठाए।
जाइ बहादर शाहु सुनाए।
ताराआग़म रण महि गिरो।
नहीण संभार शसत्र ते मरो३ ॥४१॥
सुनति अनदो सकल बुलाए।
मिले आनि करि सीस निवाए।
खोजन गयो बहादर शाहू।
जहां परो४ दीरघ रण मांहू ॥४२॥
देखति तीर भाल निकसाए।
जो कंचन ते लिपत सुहाए।


१अनार दीआण दो कलीआण शोभ रहीआण हन।
२अथवा दो छोटीआण सारकाण दे दो मूंह हन।
३पता नहीण लगदा है (कि किसदे) शसत्र नाल मरिआ है। (अ) शसत्र (जिस नाल) मरिआ है
(अुस अज़गे) आपा संभल ना सकिआ।
४पिआ सी (तारा)।

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