Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३५०
४६. ।दिलावर खां दे पुज़त्र दी चड़्हाई॥
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दोहरा: श्री जीतो सतिसंग को, सेवहि तिसहि प्रकार।
असन बसन कौ देति है, करि अुर भाव अुदार+ ॥१॥
चौपई: मधुर सलवन तुरश युति साद।
करवहि बिंजन चावर आदि।
पाइस बनहि पाइ बिच मेवे।
अथितन कौ हकारि बहु देवे ॥२॥
चाहति चित प्रसंनता पति की।
निम्री रहै सदा गति मन की।
पिखहि नगन को बसन अुढावहि।
इम संतनि सिख सेव कमावहि ॥३॥
पति मूरति अुर महि द्रिड़्ह वासी।
निस दिन प्रेम वधो अबिनाशी।
अधिक रहै दरशन की लालस।
सेवा करति न ठानहिआलस ॥४॥
इम श्री जीतो को लखि भाअू।
बसी प्रेम गुर सहिज सुभाअू।
मंदिर तिस के चलि करि आए।
अभिलाखा पूरन समुदाए ॥५॥
तिथ नवमी तबि सुर गुर वार१।
बसे निसा महि करुना धारि।
संतति केर कामना जानी।
प्रेम बसी हुइ पूरन ठानी ॥६॥
दीन रिदे तहि मोद घनेरा।
सफल मनोरथ करि तिस बेरा।
सकल जामनी महिल बिताई।
आए वहिर होति अरुंाई ॥७॥
सौच शनान ठानि गुर पूरे।
+सतिसंग दी सेवा सतिगुराण ने आपणे महिलां तोण ही करवाई है। कितना वधीक गुर सिज़खां विच
इह भाव लोड़ीए।
१वीरवार।