Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ४९
प्रकार दे ब्रहमणी प्रभाव वाले खिआल सिज़खी नाल रल रहे सन*, ते भाई जी
जैसे गुणीआण दी विज़दा अुन्हां ही मंडलां विच होई सी, इस करके ऐसे
खाल अुन्हां तोण अनजाणे पैणदे सन, पर अुन्हां दीइशटपती अुन्हां तोण अपणे
इशट सतिगुराण ळ अुज़चा रखवाअुणदी सी ते हर टिकाणे अुन्हां दी विशालता,
अुज़चता ते प्राज़लभता तोण विशेशता दे जाणदी सी। कवि जी दी अनिन सिज़खी
दे भाव अुन्हां तोण मलोमली प्रगट हुंदे सन ते ओह कदे किसे होरस ळ अपणा
इशट नहीण सन मंनदे।
देखो रास तिंन, अंसू ३२, अंक १४ विच कवि जी दी अनिनताई जिज़थे कि ओह
आप गणपति आदिकाण दा मंनंां मन्हे करदे हन यथा:- गणपति आदि
पणचांग मनाए। तिन पर निशचा नहीण टिकाए। सिज़ख अनिन भगत हैण मेरे।
जे न प्रतीत, लेहु अब हेरे। ।श्री गुरू अरजन देव जी दे मुखारबिंदोण एह
वाक कवी जी ने लिखे हन॥।
फिर देखो-रास ३, अंसू ३२ दा अंक २२. ते २३:-
वार महूरत तब नहिण पूछा। बिनां खरच ते मन नहिण छूछा।
निशचा एक करन अरदास। नित जानहि जहिण कहिण गुर पास।
भगत अनिन कहावति ऐसे। गुर बिन अपर न मानहिण कैसे।
जो कुछ अुन्हां ने समेण ते अपणी विज़दा वाकफी दे मंडल विच कीता है अुसदा आशा
इहो है:- अपने इशटदेव ळ सुमेरु परबत समझंा, दूसरे बग़ुरगां दी
निदा ना करनी, पर अुन्हां ळ इशटदेव तोण नीवेण ते निजतोण वडेरे समझके
इकरार विच वसदिआण पतिब्रत भाव निबाहुणा, जिवेण कुलीन पतिब्रता-पती
भावना-पती बिनां किसे विच नहीण धारदी, पती दे लवे किसे ळ नहीण
लाअुणदी, अपणे पती तोण छुज़ट जगत विच किसे ळ मरद नहीण समझदी। पर
पती तोण छुज़ट अुसदे मिज़त्राण, संबंधीआण, वाकफां, होर साकाण सनेहीआण किसे दा
अनादर ते अपमान बी नहीण करदी*। फिर भाई गुरदास जी ने किहा है कि
औगुणां ळ छज़डके गुणां ळ तज़क के गुण सभ तोण मंग लईए, निदा ना करीए
पर धिआन सदा गुर मूरती अपणे इशट दसो सतिगुराण विच रखीए, अुन्हां
तोण सभ गुणी, अवतार, पैगंबर नीवेण हन।
जैसे नैन बैन पंख सुंदर स्रबंग मोर
तां को पग ओर देखि दोख ना बिचारीऐ।
संदल सुगंधि अति कोमल कमल जैसे
*जिवेण इक प्रसिध सिज़ख संप्रदा दी निरोल ते अनिन सिखी विच किसे समेण वशिशट आ रलिआ ते
इसने निरोल भगती, सेवा, आपा निवार परोपकार दे विच सुज़का वेदांत रलाअुणा अरंभ दिज़ता
सी।
*जैसे कुला बधू बुधिवंति ससुरार बिखै, सावधान चेतन रहै अचार चारकै।
ससुर देवर जेठसकल की सेवा करै, खान पान गान जानि पति परवार कै।
मधुर बचन गुरु जन सै लजा लवंनि, सिरजा समै सप्रेम पूरन भतार कै।
तैसे गुरसिख सरबातम पूजा प्रबीन ब्रहम धिआन गुर मूरति अपारकै ॥३९५॥