Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ३५४

५०. ।गअू जिवाई। तसबी का चोर। मोती दिता॥
४९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>५१
दोहरा: इक दिन अुपबन गमन किय,
शाहु संग गुर नद।
मनभावति फिर करि भले,
रिदे अनद बिलद ॥१॥
चौपई: मारग गमने निकटे दोअू।
पीछे चले आइ सभि कोअू।
अनिक भांति की बातनि ढले।
सतिगुर सुत औ नौरंग मिले ॥२॥
पंथ परी इक मिरतक धैनु१।
दिज़ली पति देखति भयो नैन।
जिह समीप लघु बतस२ खरोहै।
नहि कबहूं मुख त्रिननि चरो है ॥३॥
अविलोकति नौरंग हुइ खरो।
गुर सुत के बच कहिबो करो।
इस को देखि दया अुर आवै।
छोटो बतस अधिक दुख पावै ॥४॥
हम हैण तुरक द्रवो चित हेरे।
तुमरे हिंदू धरम बडेरे।
संकट बतस पाइ बहुतेरा।
मिलहि न छीर मात जिस केरा ॥५॥
हमहि रहिम जे इतनहु होयहु।
तुमहि अधिख हुइगो इम जोयहु३।
इस ते परे धरम का और।
देहु जिवाइ, बरहि पुन पौर४ ॥६॥
इम कहि शाहु ठांढ हुइ रहो।
सुनि श्री रामराइ अुर लहो।
-नौरंग हठी रहो थित रहो।

१मोई गअू।
२छोटा जिहा वज़छा।
३इं देखं नाल।
४फिर (असीण शहिर दे) दरवज़जे वड़ीए।

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