Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्रीगुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३५४

४६. ।बिसाली डेरा। सिंघां दा पहाड़ीआण नाल जंग॥
४५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>४७
दोहरा: बसे बिसाली नगर महि, गुरू रीब निवाज।
आइ राव बंदन करै, सेवै जितिक समाज ॥१॥
चौपई: बैठे निकट बाक गुरु१ सुने।
भाग आपने दीरघ गुने।
सगल खालसे लगहि दिवान।
श्री अजीत सिंघ थित हुइ आनि ॥२॥
बोलो राव सैलपति अंधे।
रावरि साथ बैर बड बंधे।
लोक प्रलोक खोइ जिन लीनो।
महां कुकाज आपनो कीनो ॥३॥
अपजसु जग महि बहु बिसतारा।
बारि अनेक लरति रण हारा।
सुनहि श्रों मन जो करतूत।
कहै गिरेशुनि बिखै कुपूत ॥४॥
बारि बारि तुरकानि अगारी।
निम्री होति देति धन भारी।
हारो धरम हिंदूअनि केरा।
बनहि दीन बोलति -मैण चेरा- ॥५॥
आन कानि जे राखति राजा२।
को इम करहि जु कीनि कुकाजा।
धिक धिकबार बारि इस कहैण।
सतिगुर संग बिरोधी लहैण ॥६॥
राज तेज शसत्रनि बल तागा।
महां रंकता के मग लागा।
तसकर समसर करि कै पंमां।
चून धेनु ले गयो कुकंमा३ ॥७॥
करी कुज़क्रित आन४ को दीन।

१गुरू जी दे।
२आन ते काण ळ रज़खं वाला जे राजा हुंदा तां।
३कुकरमी।
४कसम।

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