Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३६०

कवन अरथ१ तूं चलि करि आयो?
कहां बसैण? किस को मत धारहिण?
मंत्र जाप किस बदन अुचारहिण२? ॥७॥
हाथ जोरि तिन कहो बुझाई।
प्रभु जी! मैण आयो शरनाई।
रावरि नाम आस को धरौण३।
मिटे शोक भव सागर तरौण ॥८॥
अपर सभिनि ते आस मिटाइ।
रहोण आप की परि शरनाइ।
तबि श्री सतिगुर कहो सुनाई।
हमरी शरन परो नहिण जाई ॥९॥
जे हमरो सिज़ख होयो चहैण।
नहीण संपदा तुझ ढिग रहै।
नर अुपहास करहिण समझावहिण।
दुखी होइ पुन बहु पछुतावहिण ॥१०॥
सुनति महेशे तबहि अुचारो।
तन मन धनतुमरे पर वारो।
नाश होहि तौ चहोण न कोअू।
तुमरो प्रेम करौण द्रिड़्ह सोअू ॥११॥
सभि दिश ते मैण तागी आस।
निज चरनन महिण देहु निवास।
द्रिड़्ह निशचा देखो जिस काला।
निज कर धरो तिसी को भाला४ ॥१२॥
सज़तिनाम सो मंत्र जपावा।
सिख ने द्रिड़्ह कीनसि सुख पावा।
बहुर कसौटी महिण सो कसो५।
केतिक दिन महिण धन सभि नसो ॥१३॥
जिस जिस कार बिखै जिह दीन।

१किस कंम।
२किस दा मंतर तूं मूंहोण जपदा हैण।
३आप दे नाम दी आसा धारके (आया हां)।
४मज़थे ते।
५भाव अुस ळ परखंा विच पाइआ।

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