Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ३५८

४४. ।भाई मं-जारी॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ४५
दोहरा: घासखोद बेचन करहि,
अुदर पूरिबे हेत।
दिढ सिज़खी जिस के रिदै,
गुरू कसौटी देति१ ॥१॥
चौपई: पुनि केतिक जबि काल बितावा।
मन अडोल जिसि को द्रिशटावा।
सतिगुर बहुर मेवड़ा भेजा।
कहो हुकमनामा इह ले जा ॥२॥
प्रथम रजतपण इकीसु लेहु।
बहुर हुकमनामा तिस देहु।
सतिगुर आइसु ते मग चलो।
आइ पुरी महि मं सु मिलो ॥३॥
देखति होयहु हरख बिसाला।
सतिगुर मो कहु कीनि निहाला।
चलहु सदन मैण पद निज पावहु।
गुरू हुकम पुन मोहि दिखावहु ॥४॥
सनमानित ग्रिह मैण ले गयो।
मंच डसाइ बिठावन* कयो।
कहो मेवड़े इमि सुनि लेहु।
प्रथम इकीस रजतपण देहु ॥५॥
पीछे हुकम गुरू को देखि।
कीजहि अपने हरख विशेख।
सुनति मं ने आनद ठानो।
-मुझ को गुरु अपनो करि जानो- ॥६॥
निज दारा को सकल सुनावा।
गुर को बहुर मेवड़ा आवा।
भेट इकीस रुपज़यन+ कहै।


१भाव प्रीखा करदे हन।*पा:-डास बैठावनि।
+पा:-अपनी।

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