Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३५९

५२. ।होली खेलना॥
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दोहरा: अधिक निरादर पाइ कै,
धीरमज़ल दुख हीय।
सभि संगति मैण बिदत भे,
बेम्रियाद जिम कीय ॥१॥
चौपई: सुनि करि संगति महि सिज़ख साने।
प्रिथीए सम कै कपट महाने।
अपनो जानि छिमा गुर धरैण।
इहु तिन ते कुछ त्रास न करै ॥२॥
पाती लिखति रिपुनि सोण रहो।
गुर प्रताप को नैक न लहो।
बहुर संग नहि आवनि कीना।
ग्रिंथ दुराइ सदन महि लीना ॥३॥तअू न सतिगुर रिस अुर भए।
अपनो जानि छिमा करि गए।
अबि कोण हूं करि निकटि हकारा।
निशडर* है पखंड इह धारा ॥४॥
को जाने गुर कहां रजाइ।
कहां करहि नहि जानी जाइ।
इज़तादिक सभि बिखै ब्रितंत।
कहैण सुनै, बहु सिज़ख मिलति ॥५॥
धीरमज़ल इम लखि अपमाना।
चिंता सलिता बहो महाना।
नहि अंतर पुन प्रविशो आइ।
वहिर जाइ हय लीनि मंगाइ ॥६॥
चढि एकल ही तुरत पयाना।
खरो जाइ कोसक१ इक थाना।
सरब समाज हकारन कीनि।
पछुतावति तहि मेल सु लीनि ॥७॥


*पा:-निडर।
१इक कोस ते।

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