Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३६१
४७. ।माई भागभरी दा प्रेम॥
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दोहरा: श्री अरजन कशमीर महि, सोढी माधो दास।
पठो तहां तिस ने करी, सिज़खी महिद प्रकाश ॥१॥
चौपई: जो जिस ने बस बाणछा करी।
पाइ सु गुरु महि शरधा धरी।
पाहुल पद पखार करि लीनी।
गुरु सिज़खी की महिमा चीनी ॥२॥
पठहि शबद पंचांम्रित करहि।
गुर हित बरतावहि अघ हरहि।
मेलि करहि सिख आपसि मांही।
सुनि हैण किरतन बहु सुख पाहीण ॥३॥
गुर की कार इकज़त्रै करि कै।
अरपहि बंदहि शरधा धरि कै।
सिज़खी को होयहु बिसतार।
सिमरन लगे नाम करतार ॥४॥
इत तौ मन बाणछति को पावैण।
दुतीए मग सुखेन दरसावैण।
त्रितीए दोनहु लोक भलेरा।
सभि ते गुरमति जानि अुचेरा ॥५॥
बिप्र आदि सभिअंगीकारा।
देण दसवंध गुरू की कारा।
भए हग़ारहु घर सिज़ख गुरु के।
जीवति ही होए सम सुर के१ ॥६॥
सेवा दास बिज़प्र इक तहां।
सिदक करहि सिज़खी महु महां।
पंचांम्रित कराइ बहु बारी।
करहि मेलि संगति को भारी ॥७॥
पठहि सुनहि गुर शबद महाना।
प्रेम करहि सतिसंगि सुजाना।
निज सुत की दिशि जननी हेरा।
१देवतिआण जेहे।