Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३६४

सुनि तूशन करुनाकर होए।
अुज़तर नांहि दयो तबि कोए ॥३२॥
तहां तबहि संनासी आए।
बालनि तैसे कीनी जाए।
नीर पूर१ जबि लावै कोअू।
तोर देति बिन बेर सु सोअू ॥३३॥
लागो तहां गुलेला जाई।
निकसो नैन महंत तदाई।
शसत्र पकर करि केते मारे२।
केते चीरे केते फारे ॥३४॥
तिही समेण तुरकन को डेरा।
परो आइ पुरि के चौफेरा।
खचरन धन की लदी अनेका।
अुतरी आइ रैन करि टेका३ ॥३५॥
प्रातिकाल चलिबो तिन कीनो।
आणधी अई प्रलैसी चीनो।
अपनो परो४ न देखो जाई।
जनु सकले भे अंध तदाईण ॥३६॥
बाइ लाग गिर हैण नर घोरे५।
खज़चर भाजी तबि पुरि ओरे।
बरी जाइ तिन तुरकनि+ धामा६।
गुर सोण करति बिरोधि जि ग्रामा७ ॥३७॥
तातकाल तिन अंतर पाई८।
खुरा खोज जानो नहिण जाई।
आणधी हटी भयो अुजिआरा।

१भरके।
२(संनासीआण ने) मारे।
३रात टिकन लई।
४आपणा पराइआ।
५आदमी बुरी तर्हां। (अ) नर ते घोड़े।
+पा:-शेखन।
६भाव शेखां दे घर।
७पिंड विच।
८अंदर वाड़ लई।

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