Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १२) ३६३
४८. ।नुरंगे नाल प्रशनोतर। मिरचां दा द्रिशटांत॥
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दोहरा: श्री गुर हरिगोविंद के,
नदन बंदन जोग।
शांति मतीबैठे प्रभू,
देखति भे सभि लोग ॥१॥
चौपई: तुरकेशुर हंकार बिसाला।
दुशट नुरंगा महित कुचाला।
दीन बधावनि चाहति मंद।
हिंदू जग महि रहहि न पंद१ ॥२॥
परमेशुर सोण बंधहि दावा।
महां मूढ मति ते गरबावा।
निशकंटक२ जिस राज महाना।
शज़त्र कहूं सुनिय नहि काना ॥३॥
चारहु दिशा चमूं जिस फिरिई।
सकल देश सद ही अनुसरई।
मारहि, बंधहि, लेवहि छीन।
सरब नरेश बसी निज कीनि ॥४॥
जिम रावन त्रै लोकनि राजा।
तिम इस छित पर सहित समाजा।
चारहु ओरे खरे कर जोरे।
जे न्रिप बडे सभिनि सिर मोरे ॥५॥
श्री सतिगुर बोले तिह साथ।
का हम सोण कहि दिज़ली नाथ?
कौन काज हमरे बसि जोवा?
जो तुम ते नहि पूरन होवा ॥६॥
सुनति दुरातम मूरख मानी।
महां पाप करता ध्रम हानी।
अस नुरंग बोलो मम काज।
है जो कहहुं सुनहु तुम आज ॥७॥
१हिंदू पंद = हिंदू मारग, हिंदूमिरयादा।
२जिज़थे कोई आकी न होवे।