Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३६७
३९. ।लालू, दुरगा, जीवंधा, जज़गा, खानु, माईआ, गोविंद॥
३८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>४०
दोहरा: इक लालू बुधिवान नर, दूसर दुरगा नाम।
जीवंदा मिल तीसरो, चलि आए गुर साम१ ॥१॥
चौपई: करि बंदन को लागे सेवा।
इक दिन बैठि निकट गुर देवा।
हाथ जोरि अरदास बखानी।
दिहु अुपदेश अपनि जन जानी२ ॥२॥
जिस ते होइ अुधार हमारा।
श्री गुर अमर सु बाक अुचारा।
परअुपकार समान न और।
करहि सदा, तिस गति सुख ठौर३ ॥३॥
सो अुपकार सु तीन प्रकारा।
धरो आप तुम लखि अुर सारा।
जेतिक अपने ढिग४ धन अहै।
देहु रंक जो दुखीआ लहै५ ॥४॥
पिखहु रीब अनाथनि जहां।
वसत्र अहार दीजीअहि तहां।
देखहु दुखी दया को धारहु।
जथा शकति तिह दुख निरवारहु६* ॥५॥
निज बानी ते शुभ बनि आवै।
बिगरो कारज पर सुधरावैण७।
कै बिज़दाहुइ अपने पास।
अपर पढावहि धरहि हुलास८ ॥६॥
पुन मन ते सभि को भल चाहै।
१गुरू शरन।
२दास जाणके।
३अुस ळ सुख दा थां प्रापत हुंदा है।
४पास।
५जाणो।
६इह पहिला अुपकार है।
*पा:-कर तिह निरवारो।
७दूजे दा कारज सुधार देवे।
८इह दूजा (बाणी दा) अुपकार है।