Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३६५
४७. ।दूत वापस दिज़ली आए॥
४६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>४८
दोहरा: चंदू पठे जु दूत निज, प्रविशे पुरि महि आइ।
करि निवेश१ किस थल भले, वसतू अखिल टिकाइ ॥१॥
चौपई: लए नीर कर चरन पखारे।
पहिरे बसत्र मोल जिन भारे।
सतिगुरु की सुधि सुनि करि कान।
अहैण अकाल तखत के थान ॥२॥
आनि पहूचे बीच दिवान।
बैठे सुभट ब्रिंद सवधान।
तोमर, तुपक, तीर, तलवार।
सैफ२ सैहथी३ सेल४ संभार ॥३॥सिपर५ सरोही६ सांग धरंते।
शसत्र बसत्र ते अधिक सुभंते।
स्री हरि गोविंद तखत बिराजे।
बिरद निबाहनि लोचन लाजे७ ॥४॥
जुग गर महि सोभति शमशेर।
जो रिपु को दारुन सम शेर।
धनुख निठुर बड धरो अगारी।
फेरति सर चुटकी कर धारी८ ॥५॥
क्रिपा द्रिशटि सिज़खनि पर करते।
कबि कबि फेरति तीर निहरते९।
प्रभु की१० प्रभुता पिखि बिसमाए।
१डेरा।
२तलवार ।अ: सैफ॥
३बरछी ।प्राक्रित, सहज़तथ॥
४सेले।
५ढाल।
६तलवार। सिरोही राजपूताने दा इक सथान है जिथोण दी तलवार बहुत वधीआ लोहे दी ते अति
लचकदार हुंदी है, इथोण दी होण करके सिरोही दा अरथ ही तलवार हो गिआ।
७लजा दा बिरद निबाहुण वाले नेतर हन।
८चुटकी नाल हज़थ विच धारके।
९तीर फेर रहे दिखाई दिंदे हन।
१०भाव गुरू जी दी।