Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) ३६५५३. ।श्री हरिराइ जी ळ गुरिआई॥
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दोहरा: सुनि कै फिरो नकीब तबि, सिख संगत के मांहि।
राइजोध कौ सुध दई, अपर सभिनि के पाहि ॥१॥
चौपई: आज लगहि गुर को दरबार।
सगरे आवहु सभा मझार।
राअु रंक संगति के सारे।
आइ लहैण दरशन सुख सारे ॥२॥
कीरतपुरि के चहुदिशि डेरे।
गन मसंद जुति सिज़खनि केरे।
सभिहिनि को सुध कही पुकार।
सुनि पहुचहु गुर के दरबार ॥३॥
बीच बग़ार सथंडल चारु।
अूपर फरश भयो दिशि चारु।
सेतु चांदनी करी लगावनि।
तनो बितान महान सुहावन ॥४॥
झालर ग़री झलकती झूलति।
कुसम ग़री के जथा प्रफूलति।
रेशम डोरन ते बहु तनो।
बहुत मोल को सुंदर बनो ॥५॥
दिपित अमंद१ दीह मसनद२।
धरि अूपर अुपधानु बिलद।
लगो मोल बहु शोभति आछे।
कारीगरनि कीनि मन बाणछे ॥६॥
भयो तार सुध जबै सुनाई।
अुठि प्रभु गमन करो तिस थाईण।
श्री हरिराइसंग निज लीनि।
म्रिदुल सरूप सु बैस नवीन ॥७॥
सूरज मल, श्री तेग बहादर।
करे हकारन तिह ठां सादर।
१सुहणी।
२मसनद, रज़दी ।अ: मसनद॥