Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ(राशि १) ३६९

जज़गा सतिगुरु के ढिग आयो।
करि दरशन को सीस निवायो।
सिख गुर के गन देखि हुलासा१।
हाथ जोरि करि बाक प्रकाशा ॥१३॥
मैण चाहति अपुनी कज़लान।
मिलो एक दिन जोगी आनि।
तिस आगे मैण बिनै सुनाई।
तबि ऐसे भाखो मुझ तांई ॥१४॥
-घर कुटंब सनबंधी सारे।
बंधन रूप सु लेहु बिचारे*।
ताग करहु अबि बनहु फकीर।
पुन आवहु चलि हमरे तीर ॥१५॥
श्रेय हेत लिहु मम अुपदेशु।
छोरहु घर को सहत कलेश-।
रावरि निकट चहोण मैण पूछा।
किमि हुइ श्रेय, बनै अुर सूछा२? ॥१६॥
किमि प्रापति हुइ भगति महांनी?
जिस ते प्रापति प्रभु निरबानी।
शरधा जानि गुरू बच भाखा।
घर तागनि की नहिण करि काणखा ॥१७॥
जे घर तजे मिलहि भगवान।
कोण फकीर पुरि पुरि महिण आन३।
हाटनि पर बनकनि सोण झगरेण४।
जाचति डोलति बासुर सगरे५ ॥१८॥गुरमुख ग्रिहसति बिखे करिण६ भगति।
पाइण मुकति, नहिण जनमति जगति।


१गुरू के बहुते सिज़खां ळ देखके खुश होइआ।
*पा:-निहारे।
२मन पविज़त्र बणे।
३किअुण (फेर) फकीर शहिराण विच आअुणदे हन।
४बाणीआण नाल झगड़दे हन।
५मंगदे फिरदे हन सारा दिन।
६करदे हन।

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