Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ३६७
५२. ।समीर चलाई। समाधी। दरयाई घोड़ा॥
५१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>५३
दोहरा: सभा बिखै इक दिवस मैण, बैठे सतिगुर नद।
जेठ मास लूवाण चलहि, दस दिशि तपत बिलद ॥१॥
चौपई: बसत्र बिभूखन सदन अुतंग।
सीस महिल अरु चिज़त्रति रंग।
इज़तादिक सगरे तपताए।
नहि सीतलता कतहूं पाए ॥२॥
प्रिथी अकाश सगल तपतायो।
मनहु तेज अगनी दिपतायो।
सभा बिखै नौरंग ने कहो।
आज तपत अतिशै जनु दहो ॥३॥
गुर नदन! निज बाक बखानहु।
मिटहि तपत सीतलता ठानहु।
सभा बिखै सीतल बहि पौन।
जिस ते सुखदाइक हुइ भौन ॥४॥
सभिहिनि के चित बाकुल अहे।
महां घाम जनु तन को दहे।
सीतल मंद समीर चलावहु।सभि कौ सुख दिहु तपत मिटावहु ॥५॥
सुनि श्री रामराइ बच कहे।
हुइ सीतल जैसे चित चहे।
त्रैबिधि की१ समीर अबि आवै।
रुति बसंत सभि को बिदतावै ॥६॥
जिस को हुइ सपरश तन आइ।
अधिक मोद चित को अुपजाइ।
ग्रीखम झार२ मिटे अबि असे।
सूरज अुदे तिमर गन जैसे ॥७॥
इम कहितोण सुख दाइक पौन।
१तिंन तर्हां दी (१. सीतल। २. सुगंधति। ३. मंद मंद चलं वाली) देखो अज़गे अंक ८ ते १०
विच।
२सारी गरमी।