Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७०
जिमि जल महिण अलेप अरबिंद।
राखहि अूरध धान दिनिद१ ॥१९॥
तिमि गुर सिज़ख किरत को करते।
दे करि सतिसंगति पुन बरते२।
हुइ फकीर जाचति जबि खाइ३।
जप तप निज घाटो तबि पाइ ॥२०॥
सेवा करहिण, लेहिण सो तिस ते४।
खान पान निति करितो जिस ते।
ग्रिसती अपनो पुंन न देति।
सेवा ठानि अपर ते लेति५ ॥२१॥
जथा धेनु को घासु खुलावैण।
तिस को पलटो पै पुन पावैण६।
तिमि जज़गा! लिहु समझ बिसाल।
ग्रिसति धरम मुख है७ कलिकाल ॥२२॥
तन ते क्रिति करहु संत सेवा।
मन ते भगति करिहु हरि देवा।इस ते शीघ्र लहैण कज़लान।
तजहु न सदन ठानि गुर धान ॥२३॥
सुनि करि सीख रिदे तिन धारी।
किरति भगति करनी८ सुख कारी।
मान भलो तबि करिबे लागा।
गुर की सेव लगो बड भागा ॥२४॥
खानू अर माईआ+ पित पूत९।
१अुज़चा धिआन सूरज दा।
२वरते आप।
३मंगके जदोण खांदा है।
४सेवा करन वाले तिस तोण फल लै लैणदे हन।
५सेवा करके होर पासोण लै लैणदा है (पुंन)।
६भाव, जिवेण गां ळ घाह खुआल के लोकीण अुस दा दुज़ध चो लैणदे हन तिवेण नाम प्रेमी दी सेवा करके
लोकीण अुस दे आतम सुख दा हिज़सा वंड लैणदे हन।
७स्रेशट है।
८किरत विच भगती करनी।
+पा:-मज़ईआ।
९पिअु-पुत्र।