Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ३६८

४५. ।भाई बहोड़ा॥
४४ॴॴपिछलाअंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ४६
दोहरा: श्री अंम्रितसर को रचित, गमने गोइंदवाल।
खासे१ पर श्री प्रभु चढे, संगति संग बिसाल ॥१॥
चौपई: देश बिदेशनि संगति आवै।
दरशन करि मन बाणछत पावै।
आनहि अनिक प्रकार अकोर।
धरि करि बंदति हैण कर जोर ॥२॥
जाम जामनी ते गुर जागैण।
सौचाचार२ करनि अनुरागैण।
सीतल जल ते करहि शनान।
लाइ समाधि धरहि अुर धान ॥३॥
निज सरूप महि थिरता गहैण।
पुंन पाप जहि लिपत न अहैण।
चेतन सुज़ध अखंड अनद।
इक रस आतम सदा मुकंद ॥४॥
आसा वार रबाबी गावहि।
संगति सुनहि कलूख नसावहि।
अनिक भांत के सुंदर राग।
मिलि बैठति सिख जिन बडभाग ॥५॥
प्रभु सोण राग३, विशय वैराग४।
अुपजहि चित महि भगती लाग५।
अंम्रित के सम अंम्रित काल६।
सुनि सुनि गुर के शबद निहाल ॥६॥
भोर होति श्री अरजन नाथ।
कुंकम चंदन तिलक* सु माथ।

१पालकी।
२इशनान पांी।
३प्रभू नालप्रेम।
४विशिआण तोण विराग।
५भगती दी लगन।
६अंम्रित वेला।
*इह तिलक कोई संप्रदाई चिंन्ह होण लई नहीण सी, परंतू जिवेण इक अुदासी विच आदि गुरू जी
ने तिलक धारिआ सी तिवेण इहो जिहे कौतक आपणी मौज दे सन।

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