Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७१

कीनो सतिगुर दरशन पूत१।
तीसर मिलि गोविंद भंडारी२।
बिनै कीनि हम शरन तुमारी ॥२५॥
ऐसो गुन कीजहि अुपदेश३।
जिस महिण गुण हुइण भले अशेश४।
सुनि सतिगुर कहि बिच इस जगति।
सकल गुनन को गुन हरि भगति ॥२६॥
भगतिकरति सगरे गुण पावैण।
गुण निधान भगवान रिझावैण।
गुण करता जबिही बसि होइ।
दुरलभ गुन पुन रहै न कोइ ॥२७॥
बूझन लगे भगति किसु रीत?
करहु बतावनि अुपजहि प्रीति।
तबि सतिगुर ने कहो बुझाई।
-नवधा भगति५- एक सुखदाई ॥२८॥
दूजे -प्रेमा भगति- बिचारी।
-परा भगति- त्रितीए निरधारी।
प्रथम सुनहु नवधा के भेद।
प्रापति भए बिनासहिण खेद६ ॥२९॥
शरधा सहत गुरू के बैन।
१ श्रवन करहि सनमुख मन नैन।
२ दुतीए कथा कीरतनु करने।
नीके प्रभु के गुन गन बरने ॥३०॥
३ त्रितीए सज़तिनाम सिमरंते।
बिना भजन नहिण समां बितंते।
सासन संग सु नाम मिलावैण।
अूठति बैठति नहिण बिसरावैण ॥३१॥


१पविज़त्र।
२खज़त्रीआण दी इक जात है।
३ऐसे गुण दा अुपदेश करो।
४कि जिस विच बाकी (दे सारे) भले गुण आ जाण।
५नौ प्रकार दी भगती।
६दुज़ख।

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