Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३६९
४६. ।घोड़िआण दी बखशिश। शुध जपुजी पाठ॥
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दोहरा: श्री गुरु हरिगोबिंद जी प्रभु जोधा बलवान।
शौक बिलद तुरंग को चढहि प्रीति को हानि ॥१॥
चौपई: पंच पवंगम लगे तबेले।
सेवक लागे करनि सुहेले१।
पुन सतिगुरु इक इकि फिरवायो।
फांधनि चंचल बेग धवायो ॥२॥
तिन पंचहु मैण एक भलेरो।
चंचल बल मैण बेग बडेरो।
श्री हरि गोविंद आप चर्हनि को।
रखवायहु कहि, सुशट बरन को२* ॥३॥
ग़ीन जराअू जरे जवाहिर।
जबर ग़ेब जगमग जिस ग़ाहर।सुंदर कोरदार बर हीरे।
जोग थान के जानति चीरे३ ॥४॥
अपर अजाइब जुकति बनो है।
सु वरन शोभति सरन सनो है४।
ऐसो तुरग सुगम नहि आवै+।
जो सतिगुर के मन महि भावै+ ॥५॥
करो हुकम आनहु करि तार।
दासन ततछिन मांहि शिंगार।
रेशम डोर गहे कर आनो।
धंन भाग जुति सभि ने जानो ॥६॥
तन को बरन दिपति इस भांती।
मनहु ताफता सुंदर काणती१।
१सुखी करन लगे, भाव सेवा करन लगे घोड़िआण दी।
२स्रेशट रंग दा।
*पा:-कहि सुभट बचन को।
३भाव सुहणे स्रेश हीरे जिस जिस थां ते जड़े होए हन अुसे अुसे थां दे मुताबक जाणके चीरे गए
सन।
४सोने समेत स्रेशट रंग दा शोभदा है।
+इह दोवेण तुकाण कई लिखती ते इक छापे दे नुसखे विच नहीण हन, ते चौपई दे दो ही चरन
हन।