Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७२
४ चौथे सतिगुरकै भगवान।
ठानहिण चरन कमल को धान।
कै संतन के चरन पखारै।
शरधा ते चरनांम्रित धारै ॥३२॥
५ पंचमि करहि अहार भलेरे।
प्रथम अरपि हरि गुरू अगेरे।
जथा शकति संतन अचवावै।
वसत्र शरीर साध पहिरावै ॥३३॥
६ खशटमि प्रभु गुर कै गुरदवारे।
बंदन करहि प्रदछना धारे।
धूप दीप चंदन चरचावै।
ूलन आनि१ सुगंधि चढावै ॥३४॥
७ सपतमि दासु आप को जानै।
परमेशर सामी पहिचानै।
तन मन धन जानै प्रभु दान२।
सती नार सम पति भगवान३ ॥३५॥
८ अशटमि मिज़त्र लखै श्री पति कौ४।
नहीण डुलावै अपने चित को।
जो कछु करहि भली मम जानै।
नहीण तरकना५ तिस पर ठानै ॥३६॥
जथा सखा की क्रिज़ति लखंता।
-करहि जु कछु मम भला करंता६-।
तिमि प्रभु मिज़त्र किरत को हेरै।
-जो किछु करै भली सो मेरै-* ॥३७॥
९ नौमी तन धन प्रभु अरपाइ।
१लिआ करके।
२प्रभू दा दिज़ता।
३पतिज़ब्रत इसत्री वाणग परमेशुर ळ पती(जाणै)।
४परमातमा ळ।
५हुज़जत।
६जिवेण मिज़त्र (मिज़त्र दी) कीती ळ देखदा है, (कि इह) जो कुछ करदा है मेरा भला करदा है।
*यथा गुर वाक: मीतु करै सोई हम माना॥
मीत के करतब कुसल समाना ॥१॥ ।गअुड़ी म ५॥