Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३७०
५४. ।सरीर दा ससकार॥
५३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>५५
दोहरा: शाहु सनान प्रभाति करि,
पोशिश पहिरि नवीन।
पिखनि चलो चितवंति चित,
-दरसौण गुरू प्रबीन ॥१॥
चौपई: जियति मेल नहि मो संग करो।
कहि बहु रहो अधिक हठ धरो।
अबि सरूप मैण देखौण जाई।
अग़मत है कि नहीण बिधि काई- ॥२॥
एव बिचारति तूरन आयो।
भीर सैणकरे नर की लायो।
हेरनि हेतु हग़राहु आवैण।
शाहु पिछारी चलि अुतलावैण ॥३॥
आइ पौर पर अुतरो तबिहूं।
देखति अुठे आदि न्रिप सभिहूं।
नम्रि होइ सनमानकरंते।
भई भीर बहु को हटकंते ॥४॥
जै सिंघ संग बूझि बिरतंता।
अंतर बरो पिखनि अुमकंता१।
रिदे मनोरथ को इम करो।
-नहि मिलिबे को हठ बहु धरो ॥५॥
सिज़खा दीनसि बडे हमारे।
सो हम नेम निबाहो सारे।
जीवति जावत तावत रहो।
अबि सो मिटै दरस को लहो ॥६॥
किस अुपाइ ते नेम न रहै।
पिता सीख को जिस बिधि कहै।
का अग़मत को करहि दिखावनि।
देखि लेअुण मैण दरशन पावन२- ॥७॥
१देखंा चाहुंदा होइआ।
२पविज़त्र।