Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३७४

सुधि भूलहि सभि आदिक अंग१।
जोण जोण वध है प्रेम बडेरा।
तोण तोण होति अहार छुटेरा२ ॥४४॥
भूख पास की गम३ हुइ थोरी।
निस दिन रहै प्रेम मति बोरी४।
ब्रिहु ते वधहि बिखाद अधीरा५।
बदन बरन६ हुइ आवति पीरा७ ॥४५॥
पारे की जे बात बतावहिण।
अस८ संतन के निकट सिधावहि।
सुनि पिखि कै प्रिय मिलनि निशानी।
निकट जानि हुइ९ प्रीत महानी॥४६॥
संत संग जबि वधो वधेरा।
पूरन प्रभू सरब मैण हेरा।
तबि मुख लाल रंग द्रिशटावै।
त्रिपति होइ मन कितहुं न धावै ॥४७॥
शांति मधुरता१० तबि हुइ आई।
अंतर ब्रिती सथिरता पाई।
दिढ अज़भास गान मनि लावहि।
-पराभगति११- अुतपति हुइ आवहि ॥४८॥
अपनि सरूप निहारन चाहा।
ईशुर जीव अभेद अुपाहा१२।
सति चेतन आनद ब्रहम रूप।


१अंग आदिकाण दी सभि सोझी।
२थोड़ा।
३चिंता।
४प्रेम विच बुज़धी डुबी होई।
५दुज़ख ते अधीरज।
६मुख दा रंग।
७पीला।
८इहो जिहे।
९(परमेशर ळ) नेड़े जाण के हुंदी है।
१०शांती रूप मिठास।
११अुह भगती जो द्रिशटमान तोण चज़कके द्रिशटा विच लै जावे, वाहिगुरू मिलाप प्रापत अवसथा।
१२पाइ लाइआ ।संस: अुपाहत = मिल गिआ॥।

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