Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ३७२

४८. ।जहांगीर पास चुगली॥
४७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>४९
दोहरा: स्री हरि गोविंद चंद को, बोलनि अर बिवहार।
सुनि चंदू चिंता अधिक, अनिक अुपाव बिचारि ॥१॥
चौपई: -नहि मानहि मम सुता सगाई।
पिता दशा दिखि त्रास न पाई।
बधति बधति बधि गयो बिरोधा।
अजहु न मेरो मानति क्रोधा१ ॥२॥
कै मेरो अबि होइ बिनाशा।
कै जीवनि ते सो बिन आसा।
हरिगुविंद को जबि पकरावौण।
तबहि बैर पूरन सफलावौण२ ॥३॥
पुन धन खरचौण अधिक सु ऐसे।
पकरो मरहि न निकसहि जैसे-।
इज़तादिक मन गिनहि बिसाला।चिंता महि दिन रैन दुखाला ॥४॥
शाहु समीपनि रिशवति देति।
कहिबे को अवसर नहि लेति।
जहांगीर ढिग पहुचहि जबै।
अनिक घाति३ बातनि कहि तबै ॥५॥
हग़रति को रु इक दिन पाइ।
कर जोरति कहि बिनै बनाइ।
माझे देश हकीकति सारी।
कहति आइ जैसे धन भारी ॥६॥
श्री अरजन जो तुम बुलवाए।
लवपुरि मिले आप ढिग आए।
तिन परलोक भयो महि जबि ते।
सुत बैठो गादी पर तबि ते ॥७॥
जहांगीर सुनि बूझन लागे।


१भाव मेरे क्रोध तोण डरदा नहीण।
२सफला कराणगा।
३अनेकाण दाअु दीआण।

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